आज कोरोना महामारी से जनित लॉकडाउन के कारण प्रवासी मजदूर अपने गाँव की और चल पड़ा है, करोड़ो की संख्या में मजदूर इसी उम्मीद से गाँव जा रहा है कि अगर गाँव मे कुछ रोजगार-धंधा मिल गया तो फिर शहर में नही आएंगे, और इस सोच से देश के लिए एक नई आशा की किरण जरूर जगी है, देश का नेतृत्व अर्थव्यवस्था को एक बार फिर से गति प्रदान करने के लिए नए-नए तरीकों की तलाश में जुटा है और आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा से देश के लोगो मे आत्मविश्वास भी जागा रहा है। परंतु आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी छिपी हुई आर्थिक ताकतों को या फिर जिन उपायों की व्यापक अनदेखी की, उन्हें समझे। दशकों से आदिवासी गांवों में रहकर रोजमर्रा की जरूरतों का समाधान खोजते हुए अर्थव्यवस्था के वैश्विक चक्र के साथ ही हमें स्थानीय स्तर के अर्थचक्र को वैकल्पिक समाधान की राह को तेज गति देने की आवश्यकता है।

मेरा दक्षिण गुजरात के आदिवासी ग्रामीण विस्तार का जो थोड़ा सा अनुभव है उसके आधार पर में कह सकता हु की गांवों और विशेष रूप से आदिवासी गांवों में बहुत सारे ऐसे उत्पादों का भी निर्माण होता है, जिनका कोई बाजार नहीं होता और न ही बड़े पैमाने पर उनकी बिक्री होती है। इनका उत्पादन स्थानीय उपयोगिताओं के आधार पर होता है और उत्पादन के साथ ही स्थानीय खपत की सटीक गारंटी भी होती है। इससे बड़ी आबादी का जीवन निर्वाह भी होता रहता है।अतः हमें उत्पादन, बिक्री, बाजार और रोजगार के नेटवर्क को कायम रखते हुए हमें उन संभावनाओं पर भी गौर करने की जरूरत है।

देश में आज भी करोड़ों लोगों की आजीविका आधार स्थानिक है। जैविक खेती,सुथार,कुम्हार के काम, बांस (बांबू) से निर्मीत विविध उत्पाद, वार्ली पेंटिंग, काशीनदाकारी के कपड़े, लाख की चूड़ियां,खाद्य उद्योग,पशुपालन,मधुमक्खी पालन जैसे काम के लिए न तो बाजार की तलाश और न ही पूंजी की जरूरत है। औषधिय गुण वाले जड़ी बूटियों से प्राकृतिक चिकित्सा भी ऐसा ही विकल्प है जो लोगों की जेब पर बोझ बढ़ाए बिना उनके जीवन की आशा बढ़ा देता है। हमें संकट की इस घड़ी में अपनी अर्थव्यवस्था के इस देसी आधार को सहारे के रूप में अपनाने की जरूरत है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर सघन नेटवर्क बनाने की आवश्यकता है। नीति आयोग से लेकर राज्य सरकारों,स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं और स्वयंसेवी संस्थाओं के बीच एक सेतु बनाकर काम करना समय की आवश्यकता है।

शहरों से गांवों की ओर बढ़ रहे प्रवासी मजदूरों को उनके कौशल के आधार पर स्थानीय स्तर पर ही उनके लिए रोजगार के साधन उपलब्ध करवाना आवश्यक हो गया है। वैकल्पिक अर्थरचना के निर्माण में इन मजदूरों को लगाया जा सकता है। कोई बायोगैस प्लांट बना सकता है तो कोई तरह-तरह के हैंडलूम-हैंडीक्राफ्ट के जरिये शहरों के रोजगार गांव में खींच सकते है। गांवों की अर्थव्यवस्था को केंद्र बनाकर ये लोग क्रयशक्ति को बढ़ाकर महानगरों या बड़े शहरों के औद्योगिक केंद्रों के लिए बाजार का व्यापक आधार दे सकते हैं।

अब इन प्रवासी मजदूरों को अपने गांव में कोई आर्थिक कार्य शुरू करने में अब कम समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि भारत के गांव भी सड़कों से अच्छी तरह से जुड़ गए हैं। लगभग हर गांव में बिजली है। शहरों की तुलना में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के अंतर को कम करना अभी भी बाकी है। इसलिए गांव आधारित वैकल्पिक आर्थिक पुनः निर्माण की रणनीति हमारी अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी साबित हो सकती है। कृषि विकास और इजरायल पद्धति से कृषि पर आधारित उद्योगों के जरिये बेहतर भविष्य की कल्पना हम कर सकते है, हमारे उद्योगपतियों को भी इस दिशा में पहल कर गांवो के नजदीक में उद्योग लगाने को प्राथमिकता देनी चाहिए। ऐसी पहल उत्पादन लागत को कम करने के साथ ही दूरगामी विकास और समृद्धि का रास्ता खुल सकता है।

हमारी वन संपदा, हमारे प्राकृतिक संसाधन, पीढ़ियों से प्राप्त हुनर, देसी की चाहत, स्थानीय की जरूरत और घर-घर की खपत आर्थिक विकास का आधार बन सकती है। हमारी छिपी संभावनाएं उभरेंगी और प्रतिभाए भी सवरेंगी और विकेंद्रीकरण के सपनों को साकार करते हुए बाजार के आंकड़ों का ग्राफ भी उड़ान भरेगा।

कल्पेश रावल,
युवा विचारक